Friday, August 12, 2016

आकाशवाणी गुवाहाटी के ’सैन्य कार्यक्रम’ का गौरवपूर्ण इतिहास



जब भी आकाशवाणी के मनोरंजन प्रधान सेवाओं की चर्चा होती है, तब बात अक्सर ’विविध भारती’ और हिन्दी भाषी क्षेत्रों के कुछ गिने-चुने केन्द्रों तक सीमित रह जाती है। ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं कि सुदूर पुर्वोत्तर भारत स्थित किसी केन्द्र के कार्यक्रमों पर किसी का ध्यान नहीं जाता। ’रेडियोनामा’ के माध्यम से आज मैं आपका परिचय आकाशवाणी गुवाहाटी से प्रसारित ’सैनिक भाइयों के कार्यक्रम’ से करवाने जा रहा हूँ जिसका एक गौरवपूर्ण और सुखद इतिहास रहा है। इस लेख को पढ़ते हुए इस कार्यक्रम से जुड़ी कई रोचक तथ्यों से आप अवगत हो पाएँगे। इस कार्यक्रम की चर्चा शुरु करने से पहले आकाशवाणी गुवाहाटी की शाखाओं पर एक नज़र दौड़ाना ज़रूरी है। बात उस समय की है जब FM नहीं था। चार महानगरों को अगर एक तरफ़ रखें तो बाकी के शहरों में बस दो-तीन गिने-चुने शहरों (उदाहरण: जलंधर, हैदराबाद) को छोड़ कर किसी भी शहर में आकाशवाणी की बस एक एक शाखा ही हुआ करती थी। ऐसे में आकाशवाणी गुवाहाटी के पास दो नहीं बल्कि तीन शाखाएँ थीं - क, ख और ग। क-शाखा यानी मुख्य प्राइमरी चैनल, तथा ’ख’ व ’ग’ शाखाएँ मनोरंजन-प्रधान व विशेष श्रोता वर्गों (जैसे कि सैनिकों, युवाओं आदि) के लिए थे। ’क’ शाखा का प्रसारण MW & SW पर था, जबकि ’ख’ का केवल MW पर तथा ’ग’ शाखा का केवल SW पर होता था। ’क’ शाखा की तीन सभाएँ होती थी (आज भी होती है) -प्रात:, दोपहर, सांध्य। स्वतन्त्र रूप से ’ख’ शाखा की एक सभा (सांध्य) और ’ग’ शाखा की दो सभाएँ (प्रात: व सांध्य), तथा संयुक्त रूप से ’ख’ और ’ग’ शाखाओँ की एक सभा दोपहर को प्रसारित होती थी। अर्थात् दोपहर वाली ’ख’ व ’ग’ शाखाओं की इस संयुक्त प्रसारण में MW और SW, दोनों में कार्यक्रम सुनाई पड़ते। ’सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’ इसी प्रसारण का अंग था।

तीन शाखाएँ होने की वजह से ’ख’/’ग’ शाखाओं पर श्रोता-विशिष्ट कार्यक्रमों के लिए विशेष प्रावधान रखा गया। इसमें उल्लेखनीय थे ’युवा-वाणी’, जो शाम को 17:10 से 20:00 बजे तक ’ख’ शाखा से प्रसारित होता और दूसरा ’सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’, जो दोपहर 12:30 से 14:10 तक ’ख’ शाखा से और फिर शाम 17:05 से 17:45 तक ’ग’ शाखा से प्रसारित होता। इस तरह से जहाँ ’विविध भारती’ सहित भारत के लगभग सभी स्थानीय केन्द्रों से फ़ौजी भाइयों के लिए केवल 30 या 40 मिनट के कार्यक्रम प्रसारित होते, वहीं गुवाहाटी से पूरे 2 घंटे 20 मिनट का कार्यक्रम रोज़ाना पेश हुआ करता। फ़ौजी जवानों के लिए रेडियो पर इतना विशाल आयोजन अपने आप में अनूठा था। दरसल इस कार्यक्रम की शुरुआत का भी एक ऐतिहासिक महत्व है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय और उसके पश्चात् पुर्वोत्तर भारत की चीन से लगी अरुणाचल प्रदेश की उत्तरी सीमाओं में सेना के असंख्य जवान तैनात हुए थे। दूर-दराज़ के इन अंचलों में सैनिकों के मनोरंजन हेतु सरकार की तरफ़ से आकाशवाणी गुवाहाटी से इस कार्यक्रम की योजना बनाई गई थी। इस तरह से इस कार्यक्रम का संबंध भारत-चीन युद्ध जुड़ा हुआ है। और तब से लेकर आज तक यह कार्यक्रम जारी है।

सैनिक भाइयों का यह कार्यक्रम एक कार्यक्रम होते हुए भी कई कार्यक्रमों का समूह था। इसलिए अक्सर घोषणाओं में इसे ’सैनिक भाइयों के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण’ कह कर भी संबोधित किया जाता था। इस प्रसारण में कार्यक्रमों की जो योजना बनाई गई, उनमें ’रेडियो सीलोन’ और ’विविध भारती’ के कार्यक्रमों की झलक मिलती है, हालाँकि कुछ कार्यक्रम मौलिक भी थे। चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले आइए कार्यक्रमों की रूप-रेखा पर एक नज़र दौड़ाएँ...

12:30 - सैन्य धुन
12:31 - आज का गीत (एक गीत जिसके लिए एकाधिक फ़रमाइश आया हो)
12:37 - साप्ताहिक कार्यक्रम
        सोम - संगीत माधुरी (शास्त्रीय संगीत आधारित फ़िल्मी गीत)
        मंगल - बन्दगी के गीत और भजन (फ़िल्मी भक्ति रचनाएँ)
        बुध - फ़िल्म-ए-नग़मे (ग़ज़लनुमा फ़िल्मी गीत)
        बृह - मासिक कार्यक्रम
             1,5 - है ज़िन्दगी पुकारती (जीवन दर्शन आधारित फ़िल्मी गीत)
             2 - साज़ और आवाज़ (फ़िल्मी गीतों के धुन और गीत)
             3 - राग रंग (एक गीतकार या संगीतकार की रचनाएँ)
             4 - तरन्नुम (ग़ज़लें)
        शुक्र - एक ही फ़िल्म के गीत
        शनि - मासिक कार्यक्रम
            1,5 - स्वर संगम (कोरस-युक्त फ़िल्मी गीत)
            2 - गीत मनोरंजन (हास्य रस आधारित फ़िल्मी गीत)
            3 - मज़लिस-ए-क़व्वाली (फ़िल्मी क़व्वालियाँ)
            4 - एक और अनेक (एक गायक/गायिका के साथ अन्य गायिकाओं/गायकों के गीत)
        रवि - सबरंग (मिले-जुले फ़िल्मी गीत)

13:05 - समाचार (दिल्ली से रीले)
13:10 -
       सोम - वतन के तराने (देशभक्ति फ़िल्मी गीत)
       मंगल - गीत अपना धुन पराई (विदेशी धुनों पर आधारित फ़िल्मी गीत)
       बुध - आपकी फ़रमाइश (सैनिक भाइयों की फ़रमाइश के फ़िल्मी गीत)
       बृह - स्वर छाया (एक भाव पर आधारित फ़िल्मी गीत)
       शुक्र - आपकी फ़रमाइश (सैनिक भाइयों की फ़रमाइश के फ़िल्मी गीत)
       शनि - आपकी फ़रमाइश (सैनिक भाइयों की फ़रमाइश के फ़िल्मी गीत)
       रवि - आपकी फ़रमाइश (सैनिक भाइयों की फ़रमाइश के फ़िल्मी गीत)

13:30 -
       सोम - गीत माला (सैनिक भाइयों की फ़रमाइश के पुराने फ़िल्मी गीत)
       मंगल - मासिक कार्यक्रम
            1,5 - एक ही कलाकार के गीत (एक गायक/गायिका के गाए गीत)
            2 - पनघट (लोक धुनों पर आधारित फ़िल्मी गीत)
            3 - शीर्षक संगीत (फ़िल्मों के शीर्षक गीत)
            4 - भूले बिसरे गीत (पुराने विस्मृत फ़िल्मी गीत)
      बृह - नाटिका/ प्रहसन (विविध भारती के ’हवा महल’ के सौजन्य से)

13:45 -
      बृह - प्रादेशिक संगीत (विभिन्न राज्यों के फ़िल्मी और लोक गीत)

13:50 -
      बुध - प्रादेशिक संगीत (विभिन्न राज्यों के फ़िल्मी और लोक गीत)
      शुक्र - पत्रोत्तर (सैनिक भाइयों के पत्रों के उत्तर)
      शनि - प्रादेशिक संगीत (विभिन्न राज्यों के फ़िल्मी और लोक गीत)

14:00 -
      बुध - एक देशभक्ति गीत और एक ग़ज़ल
      बृह - फ़िल्म-संगीत
      शुक्र - ग़ज़लें
      शनि - फ़िल्म-संगीत
      रवि - प्रादेशिक संगीत (विभिन्न राज्यों के फ़िल्मी और लोक गीत)

14:10 - दिन का प्रसारण समाप्त

17:05 - साप्ताहिक कार्यक्रम
       सोम - चयनिका (एक या दो फ़िल्मों के सभी गीत)
       मंगल - सबरंग (मिले-जुले फ़िल्मी गीत)
       बुध - प्रीत लड़ी (फ़िल्मी युगल प्रेम गीत)
       बृह - गीत रंगीले (श्रॄंगार रस आधारित रंग-रंगीले फ़िल्मी गीत)
       शुक्र - बन्दगी के गीत और भजन (फ़िल्मी भक्ति रचनाएँ)
       शनि - फ़िल्म-ए-नग़मे (ग़ज़नुमा फ़िल्मी गीत)
       रवि - गीत अपना धुन पराई (विदेशी धुनों पर आधारित फ़िल्मी गीत)

17:45 - शाम का प्रसारण समाप्त

इस रूप-रेखा को देख कर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हर क़िस्म के गीत-संगीत के ज़रिए सनिकों के मनोरंजन का प्रावधान रखा गया है। यही नहीं, इन निर्धारित कार्यक्रमों के अलावा हर विशेष पर्व पर 13:30 से 14:00 के बीच विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। इनमें तीन राष्ट्रीय दिवस सहित होली, दशहरा, दीपावली, महाशिवरात्री, राम नवमी, बिहु, ईद-उल-फ़ितर, ईद-उज़-ज़ोहा, मुहर्रम, क्रिसमस, बुद्धपूर्णिमा, महावीर जयन्ती शामिल हैं। साथ ही विभिन्न सैन्य रेजिमेण्टों की स्थापना दिवस पर आयोजित समारोहों की रेकॉर्डिंग् भी सुनवाई जाती थी। 13:30 से 14:00 वाले स्लॉट को निर्धारित करने का कारण यह था कि आधे घण्टे के लिए सैनिक भाइयों का कार्यक्रम आकाशवाणी के डिब्रुगढ़ केन्द्र से भी रीले किया जाता था।

अब बात करते हैं ’सैनिक भाइयों के कार्यक्रम’ को प्रस्तुत करने वाली उद्‍घोषिकाओं की। गुवाहाटी केन्द्र में हिन्दी की तीन स्थायी उद्‍घोषिकाएँ कार्यरत थीं - विमलेश आर्या, तापसी सेनगुप्ता और साधना फुकन। तीनों उद्‍घोषिकाओं के बीच दिन और स्लॉट निर्धारित थे। सारे कार्यक्रमों को तीनों के बीच में लगभग समान रूप से बाँटा गया था। इसलिए श्रोताओं को पता होता था कि फ़लाना दिन फ़लाना कार्यक्रम कौन प्रस्तुत करने वाली हैं। इन तीन उद्‍घोषिकाओं में से दो ग़ैर-हिन्दी भाषी होते हुए भी इनकी हिन्दी का उच्चारण इतना साफ़ था कि नाम न जानने पर यह बताना असंभव कि इनकी मातृ भाषा हिन्दी नहीं है। ये तीनों 70 के दशक से कार्यरत हैं। तापसी जी ने एक बार मुझे बताया था कि उस समय उन तीनों की उम्र कम (23-24 वर्ष) होने की वजह से केन्द्र निदेशक ने उन्हें अपना असली नाम कार्यक्रम में बताने से मना किया था। वो नहीं चाहते थे कि युवतियों का असली नाम जनता को पता चल जाए क्योंकि गुवाहाटी एक छोटा शहर था और इससे उनकी निजी ज़िन्दगी में असर पड़ सकता था। इसलिए विमलेश जी, तापसी जी और साधना जी का नामकरण हुआ क्रम से रेखा बहन, सीमा बहन और मीता बहन। और ये नाम ही इनकी पहचान बन गए जो उनके साथ सेवा के अन्तिम दिन तक जुड़े रहे। इनके सेवा-निवृत्त होने के बाद भी जब जब मैं इनसे फ़ोन पर बात करता, उन्हें उनके इन रेडियो नामों से ही संबोधित करता। ऐसा शायद ही किसी और केन्द्र में हुआ हो कि उद्‍घोषक काल्पनिक नाम से अपना परिचय देते हों। हिन्दी की ये तीनों उद्‍घोषिकाओं पर सैन्य कार्यक्रम के अलावा दो और कार्यक्रमों का भार था - ’क’ शाखा से प्रसारित पाक्षिक ’हिन्दी कार्यक्रम’ तथा ’ख’ शाखा से प्रसारित दैनिक ’ख़ास बातें’ कार्यक्रम। मैं जब केन्द्र में उनसे मिलने गया था तब सोचा था कि जिस कमरे में ये बैठती होंगे, उस पर शायद ’हिन्दी विभाग’ का बोर्ड लगा होगा, पर यह देख कर ताज्जुब हुआ कि बोर्ड कर ’सैन्य कार्यक्रम’ लिखा हुआ है। इससे सैन्य कार्यक्रम के महत्व का आंकलन किया जा सकता है।

सैनिक भाइयों का यह प्रसारण कितना लोकप्रिय था, अब इसकी चर्चा की जाए! दो MW (गुवाहाटी, डिब्रुगढ़) तथा SW पर प्रसारित होने की वजह से यह प्रसारण लगभग समूचे पुर्वोत्तर भारत के दूर-दूर तक सुनाई पड़ता था। इस विशाल दाएरे की वजह से बहुत सारे सैनिक श्रोता इसे सुनते और फ़रमाइशी पत्र भेजते। सैनिक पत्रों की ऐसी भरमार होती थी कि इन तीन उद्‍घोषिकाओं के अलावा एक और कर्मचारी को नियुक्त करना पड़ा था जो केवल पत्रों को खोलने और उन्हें छाँटने का काम किया करता। यह ख़ुद तापसी जी ने मुझे बताया था। और इन फ़रमाइशों को पूरा करने के लिए सप्ताह में लगभग 240 मिनट (4 घण्टे) का समय फ़रमाइशी गीतों के लिए कार्यक्रमों (आज का गीत, आपकी फ़रमाइश, गीत माला) के लिए होता। तुलना की दृष्टि से यहाँ यह बताना आवश्यक है कि साधारण श्रोताओं की फ़रमाइशी गीतों के लिए गुवाहाटी केन्द्र से सप्ताह में केवल 130 मिनट के समय का प्रावधान था, जो ’क’ शाखा से ’कल्पतरु’ कार्यक्रम के माध्यम से प्रसारित होता। ऐसा शायद किसी भी अन्य केन्द्र में देखने को नहीं मिलेगा कि सैन्य फ़रमाइशी कार्यक्रम की अवधि साधारण फ़रमाइशी कार्यक्रम से दुगुना है।

सैनिक पत्र केवल फ़रमाइशी गीतों के लिए ही नहीं आते थे, बल्कि ’पत्रोत्तर’ कार्यक्रम के लिए भी। यहाँ भी पत्रों की ऐसी प्रचूरता थी कि सप्ताह में 10 मिनट का ’पत्रोत्तर’ कार्यक्रम तय था। जहाँ ’विविध भारती’ पूरे देश के श्रोताओं के पत्रों के जवाब केवल 15 मिनट में दिया करती, वहीं 10 मिनट का समय केवल उत्तर-पूर्व के सैनिकों के पत्रों के जवाब देने के लिए तुलनात्मक दृष्टि से बहुत ज़्यादा थे। फ़रमाइशी व पत्रोत्तर कार्यक्रमों के अलावा जिस कार्यक्रम को बहुत लोकप्रियता मिली, वह था शुक्रवार को प्रसारित होने वाला ’एक ही फ़िल्म के गीत’। उस ज़माने में रेडियो के अलावा नए फ़िल्मी गीतों को सुनने का दूसरा कोई ज़रिया नहीं था। ना तो हर नई फ़िल्म का ऑडियो कैसेट ख़रीदना संभव था और ना ही हर किसी के घर टीवी था ’चित्रहार’ देखने के लिए। श्रोता बेसबरी से शुक्रवार के ’एक ही फ़िल्म के गीत’ का इन्तज़ार किया करते; कार्यक्रम शुरु होने से पहले दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती यह सोच कर कि आज किस फ़िल्म के गाने बजने वाले हैं। और जब सीमा बहन यह कहतीं कि "अब प्रस्तुत है एक ही फ़िल्म के गीत, आज की फ़िल्म है...", यहाँ तो जैसे एक पल के लिए दिल की धड़कन रुक ही जाती। मुझे अब तक याद है कि हम किस तरह से झूम उठे थे जब ’हीरो’, ’राम तेरी गंगा मैली’, ’क़यामत से क़यामत तक’ और ’मैंने प्यार किया’ जैसी फ़िल्में शामिल हुए थे।

सैनिक भाइयों का कार्यक्रम सैनिकों में जितना मशहूर था, उतना ही साधारण श्रोताओं में यह लोकप्रिय था। इसका एक कारण भी है। उस ज़माने में ’विविध भारती’ का लाइव प्रसारण नहीं था, बल्कि रेकॉर्डेड कार्यक्रम स्थानीय केन्द्रों को एक महीना पहले भेज दिया जाता था। आकाशवाणी गुवाहाटी कुछ गिने-चुने ’विविध भारती’ के कार्यक्रम ही ’ख/ग’ शाखाओं पर सुनवाया करते जिनमें शामिल थे ’चित्रपट संगीत’, ’लोक संगीत’, ’अनुरंजनी’, ’तब और अब’, ’एक से अनेक’, ’हवा महल’ और ’छाया गीत’। ’विविध भारती’ का कोई भी फ़रमाइशी कार्यक्रम गुवाहाटी से प्रसारित नहीं होता था। इस वजह से वहाँ के श्रोता सैनिक भाइयों के फ़रमाइशी गीतों को सुन कर ही दिल बहला लिया करते क्योंकि फ़रमाइश चाहे किसी सैनिक की हो या साधारण इंसान की, पसन्द तो आख़िर एक जैसी ही होती है। बाकी ’क’ शाखा पर ’कल्पतरु’ कार्यक्रम तो था ही। ’विविध भारती’ से उत्तर-पूर्व का नाता उदासीन ही रहा और ’सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’ ही फ़िल्मी गीत सुनने का मुख्य माध्यम बना रहा। दोपहर के समय सड़कों पर चलते हुए हर पान की दुकान से, या मोहल्लों में हर घर से इसी कार्यक्रम की गूंज सुनाई देती। तापसी जी के अनुसार उन्हें ग़ैर-सैनिक श्रोताओं के भी असंख्य पत्र मिलते थे फ़रमाइशी गीतों और सुझावों के, और उन्हें शामिल न कर पाने का अफ़सोस उन्हें हमेशा रहता। एक लम्बे अरसे से इन तीनों उद्‍घोषिकाओं द्वारा कार्यक्रमों को प्रस्तुत करते चले आने से इनका श्रोताओं के साथ एक कनेक्शन जैसा बन गया था। मेरे एक अन्य लेख ’रेडियो और रेशम की डोरी’ में वर्ष 2011 में मैंने इस कनेक्शन की चर्चा की थी। ख़ैर, ’सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’ दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की करती रही।

90 के दशक के शुरु-शुरु में आकाशवाणी में कई परिवर्तन होने लगे। ’विविध भारती’ रेकॉर्डेड कार्यक्रमों को स्थानीय केन्द्रों को भेजना बन्द कर SW 10330 kHz पर लाइव प्रसारण शुरु कर चुका था। गुवाहाटी केन्द्र के ’ग’ शाखा (SW) से इसका रीले शुरु कर दिया गया। 'सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’ जो दोपहर को ख और ग से संयुक्त रूप से प्रसारित होता था, अब केवल ख शाखा से (केवल MW पर) प्रसारित होने लगा। अब यह कार्यक्रम 12:30 के बजाय 12:05 पर शुरु होता क्योंकि 12:05 वाला ’विविध भारती’ का रेकॉर्डेड ’चित्रपट संगीत’ कार्यक्रम अब बन्द हो चुका था। 12:05 पर ’फ़िल्म-संगीत’ कार्यक्रम रखा गया। और क्योंकि शाम का कार्यक्रम ’ग’ शाखा से SW पर प्रसारित होता था, इसलिए अब ’विविध भारती’ के साथ अनुकूलित कर 17:05 से 17:45 के बजाए 18:15 से 19:00 बजे तक प्रसारित होने लगा। लेकिन जल्दी ही गुवाहाटी केन्द्र के ’ग’ शाखा को पूर्णत: बन्द कर दिया गया (क और ख रह गए), जिस वजह से ’विविध भारती’ के कार्यक्रम अब गुवाहाटी से रीले होना बन्द हो गया। श्रोता अब सीधे SW 10330 kHz पर इसे सुन सकते थे। और सैनिक भाइयों के लिए शाम के कार्यक्रम को दोपहर के कार्यक्रम में ही जोड़ दिया गया। अत: अब सैनिक कार्यक्रम दोपहर 12:05 से 15:00 बजे तक हो गया। 14:10 पर समाचार, और 14:20 से 15:00 बजे तक चयनिका (सोम), गुंजन (मंगल), प्रीत लड़ी (बुध), गीत रंगीले (बृह), गीतिका (शुक्र), नज़राना (शनि), चलते गीत मचलते नग़मे (रवि) जैसे कार्यक्रम रखे गए।

भले अब ’सनिक भाइयों का कार्यक्रम’ रोज़ाना तीन घण्टों का बन गया, पर जितना इस परिवर्तन से फ़ायदा हुआ, उससे कई गुना ज़्यादा इसे क्षति पहुँची। SW पर दोपहर का प्रसारण बन्द हो जाने की वजह से इस कार्यक्रम का दाएरा बिल्कुल छोटा हो गया। डिब्रुगढ़ केन्द्र से आधे घण्टे के लिए रीले होने वाले समय को छोड़ कर बाकी समय यह कार्यक्रम केवल गुवाहाटी और इसके आसपास के इलाकों में ही सुनाई देने लगी जो पहले समूचे उत्तर-पूर्व में सुनाई देती थी। नतीजा हाथोंहाथ मिल गया। सैनिक पत्र आने कम होने लगे। कुछ गिने-चुने नाम ही हर फ़रमाइशी कार्यक्रम में सुनाई देने लगे। ’पत्रोत्तर’ की और करुण स्थिति हो गई। फिर भी तीनों उद्‍घोषिकाओं के प्रयास से कार्यक्रम में दिलचस्पी बनी रही। पर 2000 के दशक के मध्य भाग के बाद इस कार्यक्रम की हालात पूरी तरह से बिगड़ गई। अब FM आ चुका था; निजी FM के साथ-साथ ’विविध भारती’ भी अब गुवाहाटी में FM पर आ गया। यानी कि ’ग’ शाखा जो बन्द हो गई थी, अब FM के रूप में वापस आ गई जिसने बहुत से श्रोताओं को अपनी तरफ़ खींच लिए। दूसरी तरफ़ गुवाहाटी केन्द्र ने यह निर्णय लिया कि अब सभी ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स का डिजिटाइज़ेशन किया जाएगा और सभी रेकॉर्ड्स को सीडी में तब्दील किया जाएगा। पर इसका क्रियान्वयन अजीब तरीक़े से हुआ। ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स से सीडी में तब्दील होने से पहले ही स्टुडिओ से टर्ण-टेबल (जिस पर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड बजता है) को हटा दिया गया। नतीजा यह हुआ कि गीतों का एक विशाल समूह अब बजने से वंचित हो गया। जो गाने सीडी पर उपलब्ध थे, केवल वो ही बज पाते। इस वजह से कार्यक्रम की विविधता और रचनात्मक्ता को गहरी चोट पहुँची। ज़ाहिर सी बात थी कि श्रोताओं को एकरसता महसूस होने लगी। मैं जब रेडियो स्टेशन गया था तो यह देख कर हैरान रह गया कि ’ख’ शाखा के स्टुडियो का AC कई महीनों से काम नहीं कर रहा और भीषण गरमी में एक टेबल फ़ैन के सहारे उद्‍घोषिकाएँ कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही हैं। जब घोषणा की बारी आती, तब फ़ैन को ऑफ़ कर दिया जाता ताकि उसकी आवाज़ प्रसारण में ना चली जाए!


आज तीनों उद्‍घोषिकाएँ सेवा से निवृत्त हो चुकी हैं। गुवाहाटी केन्द्र में आज हिन्दी का कोई भी स्थायी उद्‍घोषक नहीं है। पूर्णत: आकस्मिक उद्‍घोषकों के सहारे ही ’सैनिक भाइयों का कार्यक्रम’ चल रहा है। इस वजह से कार्यक्रमों के स्तर में भारी गिरावट आ गई है, बहुत ज़्यादा दोहराव सुनाई दे रहा है। आज कोई, कल कोई की वजह से श्रोता और उद्‍घोषक के बीच कनेक्शन नहीं बन पा रहा है। एक आकस्मिक उद्‍घोषिका द्वारा बार-बार ’राग रंग’ कार्यक्रम में नदीम-श्रवण के गाने शामिल किए जाने पर जब तापसी जी ने उन्हें टोका था, तब उस आकस्मिक उद्‍घोषिका का पल्टा सवाल था कि "कौन सुनता है अब यह कार्यक्रम?" हक़ीक़त यही है कि भारत-चीन युद्ध के समय 1962 में जन्मा यह कार्यक्रम, जिसका एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, अब अपनी अन्तिम साँसें गिन रहा है। इस कार्यक्रम के साथ मैं तब से जुड़ा हुआ हूँ जब से होश सम्भाली थी, इसलिए दुख होता है, बहुत अफ़सोस होता है!

Sujoy Chatterjee

Saturday, October 13, 2012


फ़िल्म-संगीत का सुनहरा दौर ४० के दशक के आख़िर भाग से लेकर ७० के दशक के अंतिम भाग तक को माना जाता है। और आज आम जनता से उनके मनपसंद गीतों के बारे में अगर पूछा जाये तो वो भी इन्हीं दशकों के गीतों की तरफ़ ही ज़्यादातर इशारा करते हुए पाए जाते हैं। लेकिन इस सुनहरे दौर से पहले भी तो एक दौर था जिसे आज हम लगभग भुला चुके हैंनई पीढ़ी के पास उस दौर के फ़िल्मोंगीतों और कलाकारों के बारे में बहुत कम ही जानकारियां उपलब्ध हैं। अफ़सोस की बात है कि जिन लोगों ने फ़िल्म-संगीत की नीव रखीजिनकी उंगलियाँ थामे फ़िल्म-संगीत ने चलना सीखा और अपनी अलग पहचान बनाईउन्हें हम आज भूलते जा रहे हैंजब कि सच्चाई यह है कि हमें अपनी जड़ोंअपने पूर्वजोंअपने उत्स को कभी नहीं भुलाना चाहियेक्योंकि अगर हम ऐसा करते हैं तो हम दुनिया के सामने अपना ही परिचय खो बैठते हैं।


आज हाइ-टेक्नोआत्याधुनिक इन्स्ट्रुमेण्ट्सबीट्स और फ़ास्ट रिदम की चमक धमक के सामने फ़िल्म-संगीत का वह भूला बिसरा ज़माना शायद बहुत ही फीका लगने लगा होलेकिन वह हमारा इतिहास है जिस पर हमें नाज़ हैऔर जिसे सहेज कर रखना हमारा कर्तव्य भी है। पचास के दशक से पहले भी फ़िल्म-संगीत के दो और दशक थेजिनमें सवाक फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत का जन्म हुआऔर उस ज़माने के प्रतिभाशाली कलाकारों की उंगलियाँ थाम कर फ़िल्म-संगीत ने चलना सीखाआगे बढ़ना सीखा। फ़िल्म-संगीत की उस शैशावस्था कोजिसे आज हम लगभग भूल चुके हैंजिनकी यादें आइने पर पड़ी उस प्रतिबिम्ब की तरह धुंधली हो गई हैं, जिस पर समय की धूल चढ़ी हुई हैइस पुस्तक के माध्यम से उसी शैशवावस्था को पुनर्जीवित करने का एक छोटा सा प्रयास हम कर रहे हैं। यह प्रयास है आज की पीढ़ी को अपने उस इतिहास के बारे में अवगत कराने काजिस इतिहास के आधार पर आज वो डिस्कोथेक में रीमिक्स फ़िल्मी-गीतों पर झूमती है। उन्हें अपनी जड़ों से परिचित कराना हमारा कर्तव्य है  यह प्रयास उस गुज़रे ज़माने के अनमोल फ़नकारों को श्रद्धांजली भी अर्पित करता हैजिन्होंने बिना किसी आधुनिक साज़--सामान केऔर तमाम विपरीत परिस्थितिओं में कार्य कर फ़िल्म-संगीत को सजायासंवाराउसे अपने पाँव पर खड़ा किया और उसे अपनी अलग पहचान दी। यह पुस्तक नमन करती है फ़िल्म-संगीत के शुरुआती दौर से जुड़े सभी कलाकारों को।


फ़िल्म-संगीत पर शोधकर्ताओं में पहला नाम हर मन्दिर सिंह ‘हमराज़’ जी का आता है। सवाक्‍ फ़िल्मों के उदयकाल अर्थात्‍ सन्‍ १९३१ से लेकर आगामी  दशकों में१९७० तक निर्मित लगभग ४४०० हिन्दी फ़िल्मों के लगभग ३५,००० गीतों के पूर्ण विवरण को ‘हिन्दी फ़िल्म गीत कोश’ के  दशकवार खण्डों में प्रस्तुत किया गया है। फ़िल्म-संगीत के लिए उनकी इस कोशिश की जितनी प्रसंशा की जाए कम है। दूसरेपंकज राग और योगेश जाधव ने अलग अलग पुस्तकों में फ़िल्म-संगीत के संगीतकारों पर विस्तृत जानकारी दी है। ये पुस्तकें हैं पंकज राग लिखित ‘धुनों की यात्रा – हिन्दी फ़िल्मों के संगीतकार (१९३१ – २००५)’ और योगेश जाधव लिखित ‘सुवर्ण युगवाले संगीतकार हमराज़’ द्वारा सम्पादित त्रैमासिक पत्रिका ‘लिस्नर्स बुलेटिन’ में भी फ़िल्म-संगीत के इतिहास की उत्कृष्ट जानकारी नियमित रूप से मिलती चली आई है। हिन्दी फ़िल्म गीत कोश’ में फ़िल्मी गीतों को एक डाटाबेस के रूप में प्रस्तुत किया गया है। किसी भी गीत के बारे में जानकारी चाहिए तो अनुक्रमणिका में फ़िल्म का नाम ढूंढ़ कर उसके गीतों और उन गीतों के गायकसंगीतकारगायक आदि के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। दूसरी तरफ़ पंकज राग और योगेश जाधव की पुस्तकों में संगीतकारों के जीवन और उनके संगीत करियर का विवरण उपलब्ध है। ऐसे में एक ऐसी पुस्तक की आवश्यकता महसूस होती है जो फ़िल्म-संगीत के इतिहास को साल-दर-साल आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत कर सकेएक वार्षिक समीक्षा के रूप में। इससे फ़िल्म-संगीत के बदलते मिज़ाज को और ज़्यादा बेहतर तरीक़े से महसूस किया जा सकेगा। ‘गीत कोश’ में दी गई जानकारी एक महत्वपूर्ण डाटाबेस हैपर विश्लेषणात्मक नहीं। राग और जाधव की किताबें भी संगीतकारों पर केन्द्रित होने की वजह से साल-दर-साल फ़िल्म-संगीत के विकास को क़ैद करने में असफल है कारवाँ सिने-संगीत का – उत्पत्ति से स्वराज के बिहान तक’ में हमने कोशिश की है कि १९३१ से लेकर १९४७ तक के फ़िल्म-संगीत के इतिहास की साल-दर-साल समीक्षा करें और इसमें महत्वपूर्ण फ़िल्मों और उनसे सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियों को शामिल करें 


इस पुस्तक को भले ही पिछले तीन महीनों में लिखकर पूरा किया गया होपर अगर सही मायने में देखा जाये तो इसकी नींव करीब - वर्ष पहले ही रख दी गई थी। मेरे मन में हमेशा से विचार था कि फ़िल्म-संगीत के इतिहास पर कोई किताब होनी चाहिएइसलिए कम्प्यूटर खरीदने के तुरन्त बाद ही मैंने इंटरनेट से जानकारियाँ बटोरनी शुरु कर दीं। पूना में स्थित होने की वजह से ‘नैशनल फ़िल्म आरकाइव ऑफ़ इण्डिया’ (NFAI) की लाइब्रेरी में जाने का मौका मिला और वहाँ मौजूद कई पत्रिकाओं  पुस्तकों से महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हुईं। इंटरनेट से प्राप्त जानकारियों की सत्यता की जाँच करना भी बहुत ज़रूरी थाजिसके लिए हर मन्दिर सिंह ‘हमराज़’ के हिन्दी फ़िल्म गीत कोश’ को बतौर मुख्य संदर्भ प्रयोग में लाया गया है।


विविध भारती एक ऐसा रेडिओ चैनल रहा है जिसने ५० के दशक से लेकर आज तक फ़िल्म जगत के अनगिनत कलाकारों के साक्षात्कार रेकॉर्ड कर उन्हें अपने संग्रहालय में सुरक्षित किया है और समय समय पर जिनका प्रसारण भी होता रहता है। वर्षों से इन्हीं कार्यक्रमों में दी जा रही जानकारियों को शौकि़या तौर पर एकत्रित करने के मेरे अभ्यास का इस पुस्तक के लेखन कार्य में बहुत योगदान मिला। साथ ही इंटरनेट के माध्यम से कई कलाकारों के परिजनों से बातचीत करने का सौभाग्य भी मुझे मिला हैजिनसे गुज़रे ज़माने के इन कलाकारों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है। इन नामों की सूची ‘आभार’ में भी दी गई है। इन विशेष संदर्भों के अतिरिक्त और जिन जिन सूत्रों से जानकारी ली गई हैउनका हर अध्याय के अंत में ‘संदर्भ’ शीर्षक में उल्लेख है। कारवाँ सिने-संगीत का – उत्पत्ति से स्वराज के बिहान तक’ पुस्तक में हमने जो कोशिश की हैआशा है यह आपके लिए एक सुखद अनुभव होगा।


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मूल्य: 595 रुपये (नि:शुल्क डाक)